Kavita Jha

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विश्वास (कविता) लेखनी वार्षिक कविता प्रतियोगिता -10-Mar-2022

विश्वास

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बोलने से पहले सोचती हूँ हर बार...
क्या मैं कुछ गलत तो नहीं बोल रही...
अपने हर शब्दों को तोलती हूँ बार-बार...

कहीं कोई आहत तो नहीं हो रहा मेरे लफ्जों से...
किसी को बुरी तो नहीं लग रही मेरी कोई बात...
हाँ मैं बोलने से पहले सोचती हूँ बार बार...

यही मेरी आदत में शामिल है....
हाँ मैं ऐसी ही हूँ विश्वास नहीं करती...
दूसरों पर बड़ी आसानी से...
सब कहते हैं तूँ सोचती है बहुत ज्यादा...

जानती हूँ शब्दों के तीखे बाण....
छेद देते हैं मन...
छलनी-छलनी कर देते है जज़्बात...

देखा है मैंने कई बार....
कोई याद नहीं रखता हमारी अच्छाईयाँ....
कितना त्याग किया उनके लिये और ...
वही भूल जाते हैं पलभर में ...

अगर कभी कुछ बोल दिया उनके विपक्ष में...
वो समझने लगते हैं हमें अपना दुश्मन....

जिस पर हम करते हैं सबसे ज्यादा विश्वास ....
वही करते हैं विश्वासघात।

कुछ लिखने से पहले भी...
मन में आता है ख्याल बार बार ....
कहीं मैंने जो लिखा...
किसी को बुरा तो नहीं लगा....

मेरे शब्दों..  मेरी लेखनी से कोई ...
आहत तो नहीं हुआ ....
हाँ मैं सोचती बहुत हूँ....
ऐसा ही कहते हैं सब....

राह में खाई है ठोकरे अनगिनत.....
पैर लड़खड़ाते है.....
हाँ फूक-फूक कर रखना पड़ता है कदम हर बार ....
तभी तो..

बिन सोचे समझे न बोलेंगे कुछ न लिखेंगे कुछ....
सोचती हूँ हर बार...
पर हर बार गलत कुछ होता देख खुल जाता है मुँह...
कलम खुद ब खुद सच्चाई बयां करती है....

न चाहते हुए भी अकसर मेरी बातों से ....
कईयों को तकलीफ पहुँचती है...

पर क्या कभी कोई मेरी तरह सोचता है बोलने से पहले....
अपने शब्दों को तोलता है....
न जाने क्यों अकसर ऐसा बोल जाते हैं वो...
जिस पर हम करते हैं सबसे ज्यादा विश्वास ....
हाँ वही तो कर जाते हैं विश्वासघात।

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कविता झा 'काव्या कवि'
(स्वरचित मौलिक)

# लेखनी वार्षिक कविता प्रतियोगिता

१०.०३.२०२२


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1 Comments

Seema Priyadarshini sahay

11-Mar-2022 04:28 PM

सुंंदर सृजन

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